किसी अजनबी द्वारा हुआ कायाकल्प?
संतमत का पालन करना कभी-कभी अजीब-सा लग सकता है क्योंकि इसके उसूल, लक्ष्य और जीवन शैली अक़सर समाज की मुख्यधारा से बिल्कुल अलग होते हैं। बचपन में हममें से बहुत-से लोग पारिवारिक परंपराओं का पालन करते थे और हर सप्ताह मंदिर, मस्जिद या चर्च जाया करते थे। लेकिन कौन सोच सकता था कि एक दिन हमारा मिलाप किसी पूर्ण संत से होगा?
जब हम वयस्क होते हैं और करियर शुरू करते हैं, तब हम अपने जीवन को हर पहलू से देखते हैं। हम नए-नए मित्र बनाना चाहते हैं और सामाजिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं और अपने आसपास के लोगों से मेल-मिलाप द्वारा हमारी सोच का दायरा बढ़ता है। सोशल मीडिया, विज्ञापन और हमारे साथी हमें अनुभव, ज़मीन-जायदाद, धन-दौलत और पेशे से संबंधित उपलब्धियाँ व पदवियाँ प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं। हालाँकि यह सब मन द्वारा रचा गया भ्रम है। हमारा ध्यान अपनी नश्वरता की ओर नहीं जाता, हम इस संसार की चीज़ों के लिए जीते हैं। हमारा मन—हमेशा की तरह— हमें भटकाता है, कुमार्ग पर ले जाता है और हम प्रलोभनों का शिकार हो जाते हैं। जैसा कि गुरु नानक देव जी, आदि ग्रंथ में फ़रमाते हैं:
धंधै धावत जगु बाधिआ ना बूझै वीचारु॥
जंमण मरणु विसारिआ मनमुख मुगधु गवारु॥
हममें से कुछ लोग इस सांसारिक चमक-दमक में इतना अधिक नहीं फँसते, चाहे हम इसके पीछे की वजह नहीं जानते। शायद हम अलग-थलग महसूस करते हैं, उपराम और बेचैन। शायद हम अपने जीवन के मायनों और मृत्यु के विषय में सोचने लगते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है, “सकल जीव जग दीन दुखारी॥” हम समझ ही नहीं पाते कि यह दुनिया सुख और दु:ख की नगरी क्यों है, जैसा कि बहुत-से धर्मों में इसे कहा गया है—‘आँसुओं की घाटी’। हमारे इस नज़रिए का कारण यह है कि हमारे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं और यह रूहानियत से ख़ाली है।
फिर एक दिन हमें लगता है कि हमारी पूरी दुनिया ही बदल गई है। हम किसी की ओर खिंचे चले जाते हैं और हमारा रूहानी सफ़र शुरू हो जाता है। हो सकता है कि पहले से ही कुछ छोटे-छोटे बदलाव आने शुरू हो जाएँ, जैसे कि विशेष समय के लिए शराब छोड़ देना, पर्यावरण की वजह से माँसाहार कम कर देना या सामाजिक उथल-पुथल के दौर में अधिक दयालुता के साथ पेश आना। लेकिन ज़बरदस्त कायाकल्प की शुरुआत तब होती है, जब हम किसी पूर्ण संत से मिलते हैं। यह किसी दूसरे ही लोक का, ‘ब्रह्मांड से परे’ जैसा पल होता है। स्वामी जी महाराज ने इसके बारे में बहुत ख़ूबसूरती से बयान किया है:
गुरू मिले जब धुन का भेदी। शिष्य बिरह धर आई॥
सुरत शब्द की होय कमाई। तब मन कुछ ठहराई॥
असल में हम किसी अजनबी से नहीं मिलते, बल्कि यह पूर्ण गुरु का प्रेम होता है। उनसे प्रेरित होकर हम संतमत के बुनियादी सिद्धांतों का पालन करने के लिए राज़ी हो जाते हैं: शाकाहारी भोजन—जिसमें दूध भी शामिल हो—अपनाना, शराब और नशीले पदार्थों से दूर रहना और उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करना। नामदान के समय हम वायदा करते हैं कि हम जीवन-भर प्रतिदिन कम से कम ढाई घंटे भजन-सिमरन करेंगे। हमारे सतगुरु हमें आश्वासन देते हैं कि वे हमें शांति और आनंद के निज-धाम पहुँचा देंगे, जहाँ जाने के लिए हमारी आत्मा व्याकुल है। सारबचन संग्रह में, स्वामी जी महाराज फ़रमाते हैं:
शब्द कमावे सो गुरु पूरा। उन चरनन की हो जा धूरा॥
और पहिचान करो मत कोई। लक्ष अलक्ष न देखो सोई॥
शब्द भेद लेकर तुम उनसे। शब्द कमाओ तुम तन मन से॥