कोलाहल में शांति
अत्यधिक उत्तेजना और निरंतर शोर आधुनिक समाज के लिए नई सामान्य बात हो गई है जिसके कारण ऐसा वातावरण बन गया है जहाँ मन की शांति कहीं खो गई है। वहीं दूसरी तरफ़ आश्रम का शांत वातावरण है, जहाँ की सादगी, शांति और सामुदायिक सद्भावना आनेवालों को अद्भुत शांति का एहसास दिलाती है। आश्रम उस शरण-स्थल का रूपक मात्र है जिसे हम अपने भीतर बना सकते हैं, जहाँ पर प्राप्त होनेवाली शांति और सादगी बाहरी शोर से थक चुके मन को सुकून देती है। संसार को त्याग कर सच्ची शांति प्राप्त नहीं हो सकती। सच्ची शांति अपने अंदर ऐसी आंतरिक शक्ति को विकसित करके ही प्राप्त हो सकती है जो ज़िदंगी की मुश्किलों का सामना करने की हिम्मत दे और अपने जीवन में सुकून की तलाश करने की प्रेरणा दे।
एकांत, स्थिरता और शांति जैसे विचार आज के बेतहाशा भाग रहे संसार के लिए अजीब-सी बातें हैं। कुछ लोगों के लिए तेज़ आवाज़ में बजते हॉर्न, चमकीली तेज़ रोशनियाँ, लगातार हो रही बेकार की बातों द्वारा उत्पन्न शोर संगीत हो सकता है, जबकि कुछ लोगों के लिए यह केवल शोर है। शहरों का कोलाहल, कभी ख़त्म न होनेवाला शोर दिन-रात शहर की सड़कों पर गूँजता रहता है। यहाँ तक कि रात के तथाकथित सन्नाटे में भी, कभी ख़त्म न होनेवाले कोलाहल के कारण ऐसा लगता है कि हर समय कहीं कोई जगा हुआ है। ऐसा लगता है मानो यह कंक्रीट का समुद्र मुझे निगल लेगा। मुझे अपनी त्वचा के हर रोम में अपने आसपास के जमघट की सामूहिक ऊर्जा महसूस होती है; जिससे बच पाना संभव नहीं। गगनचुंबी इमारतें किसी पहरेदार की तरह खड़ी हैं और उनके शीशे वाले अग्रभाग (facades) नीचे चलते लोगों की तेज़ गति को दर्शाते हैं।
हवा में से जब पैट्रोल और महत्त्वाकांक्षाओं की गंध आ रही हो, तो कोई साँस कैसे ले? कोई अपने मन को स्थिर कैसे करे जब शहर की गति अपने ही दिल की धड़कनों की गति से ज्यादा तेज़ है? जब रात में भी कर्कश-ध्वनि का कोलाहल सुनाई दे, तब किसी को सुकून कैसे मिल सकता है? हम जैसे शांतिप्रिय लोग जो इस सब से बचना चाहते हैं, कहाँ जाएँ?
आश्रम (डेरा) ज़िंदगी के तूफ़ान में सादगी से भरा वह शरण-स्थल है जिसे जान-बूझकर शहर की आपाधापी से परे बनाया गया है। ऐसा लगता है कि आश्रम के खुले द्वार एक अनकहे वायदे के साथ आश्रय के लिए मुझे बुला रहे हैं। इसकी चारदीवारी के अंदर, दुनिया पीछे रह जाती है और कुछ कोमल और कुछ प्राचीन सामने आता है। यहाँ की इमारतें शहर की गगनचुंबी इमारतों की तरह आकाश को नहीं छूती; बल्कि यह ज़मीन से जुड़ी हुई, भू-दृश्य में रची-बसी दिखाई देती हैं मानो उस मिट्टी में ही बढ़ी हों। यहाँ के ऊँचे-ऊँचे पेड़, जो सदियों से यहाँ आनेवाले जिज्ञासुओं के ख़ामोश साक्षी रहे हैं, हवा से उनके रहस्यों के बारे में खुसफुस करते हैं और इनके पत्ते उस प्राचीन ज्ञान के सुर में सुर मिलाते हैं जिसे ऊँची आवाज़ में प्रकट नहीं किया जा सकता।
शहर का शोर-शराबा और कोलाहल मद्धिम पड़कर कहीं दूर हो रही फुसफुसाहट में तबदील हो जाता है और गहरी शांति उसका स्थान ले लेती है। यहाँ की हवा मिट्टी, अगरबत्ती, खिले हुए फूलों की सुगंध से भरपूर है और कुछ ऐसा अकथनीय है जो धीमी साँस की तरह हवा के साथ ही चलता है। आश्रम के बगीचे में रंगों की समता है— चमकीले गुलाबी, बैंगनी और पीले फूल मानो सद्भावना से अनायास ही झूम रहे हैं। ऐसा लगता है कि हर पंखुड़ी और घास की हर पत्ती ब्रह्मांड के ताल पर धरती की धड़कन के साथ लयबद्ध होकर कोमलता से लहरा रही हो।
यहाँ की ख़ामोशी जीवंत है। यह सिर्फ़ आवाज़ की अनुपस्थिति नहीं है, इसे महसूस किया जा सकता है। छोटी से छोटी ध्वनि—पत्तों की सरसराहट, कच्चे रास्तों पर पैरों की कोमल चरमराहट, दूर से सुनाई देती शब्दों की आवाज़—इन्हें अपने भीतर महसूस किया जा सकता है। इस शांति में गति भी है। शांति की तलाश में निकले साथी जिज्ञासुओं के बीच में से निकलता हुआ मैं कच्चे रास्ते पर चलता गया। माताएँ भी साथ चल रही थीं, उनके चमकीले दुपट्टे बहती नदियों की तरह पीछे लहरा रहे थे और उनके बच्चों के छोटे-छोटे हाथ इन दुपट्टों के छोर को पूरे भरोसे के साथ पकड़े हुए थे। यहाँ पर लोग किसी उद्देश्य से परंतु बिना किसी जल्दबाज़ी के, किसी ऊँची शक्ति के प्रति आदरभाव से चल रहे थे। संसार के कोने-कोने से साधक अपने अहं और उपाधियों को पीछे छोड़कर सच्ची शांति प्राप्त करने की एक-सी चाहत लिए यहाँ आते हैं।
हम बुनी हुई चटाइयों पर बैठते हैं, जहाँ हमारे चारों तरफ़ हम जैसे ही हज़ारों लोग बैठे होते हैं। सारा वातावरण किसी के इंतज़ार में शांति से परिपूर्ण होता है। साधकों का इतना विशाल समूह महासागर की तरह प्रतीत होता है, फिर भी किसी तरह की बेचैनी नहीं होती–एक अनकहा नाता होता है। आँखें मूँदकर, सभी एकजुट हो जाते हैं, नज़दीक बैठे होने के कारण नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि सभी का उद्देश्य एक है। इस जन समूह की विशालता का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, मगर ऐसा महसूस होता है कि सारा संसार ही इस साँझे पल में सिमट-सा गया है। शांति इतनी गहन होती है कि कपड़ों की सरसराहट, स्वाँस की धीमी-सी आवाज़ भी घंटी की गूँज की तरह साफ़ सुनाई देती है। कृतज्ञता कोमलता से बहती हवा की भाँति एक-दूसरे के बीच की दूरी को समाप्त कर देती है। बाहरी संसार का अस्तित्व धुँधला पड़ जाता है और केवल एक ही ध्वनि महत्त्वपूर्ण होती है–वह शांति जिसे सब महसूस करते हैं, हर जीवात्मा उस पवित्र शांति के साथ एकसुर हो जाती है।
सत्संग के बाद, सारा जन-समूह आश्रम के लंगर की ओर उमड़ पड़ता है जो विनम्रता का प्रतीक है। हवा में फैली पीली दाल की महक से ही मुँह में पानी आ जाता है। इस मक्खन-सी मुलायम दाल में जीरे और हल्दी की सोंधी-सी ख़ुशबू घुली होती है। गरमागरम बासमती चावलों के ढेर चमक रहे होते हैं, उनमें से तेजपत्ते और इलाइची की महक आ रही होती है। उसे खाने के बाद उसका स्वाद बहुत देर तक बना रहता है जो न सिर्फ़ शरीर को बल्कि आत्मा को भी तृप्त कर देता है। हर प्रकार के दिखावे से मुक्त यह सादा खाना, किसी भी मिशेलिन-स्टार रेस्त्रां में भोजन करने के अनुभव से बढ़कर है। इसका वास्तविक आनंद तो मिल-बाँटकर खाने में ही है। हम सब साथ-साथ बैठते हैं–हम किसी को नहीं जानते, फिर भी परमपिता परमात्मा की संतान होने के नाते बिना किसी भेदभाव के सब साथ मिलकर सेवा करते और करवाते हैं। भोजन कर लेने के बाद, सब अपनी प्लेट स्वयं धोते हैं–इस छोटी-सी सेवा में भोजन के ज़ायके से कहीं अधिक लज़्ज़त होती है।
जैसे-जैसे सूर्य ढलता है, शब्दों की आवाज़ चारों ओर गूँजने लगती है, कभी ऊँचे और कभी धीमे स्वर में। यह केवल संगीत नहीं है; यह एक ऐसा स्पंदन है जो आपको भीतर तक छू जाता है। साधक अपनी आँखें मूँदकर बैठते हैं, मानो पवित्र शब्द की लहरें उन्हें निर्मल कर रही हों, उनके सारे सांसारिक तनाव को दूर कर रही हों।
दुनिया के शोर से बेचैन मन को, इस स्थिरता में सुकून मिल जाता है। यहाँ आकर एहसास होता है कि शांति किसी भी तरह की आवाज़ या हलचल का न होना नहीं बल्कि हमारे भीतर परम आनंद की अनुभूति है, जो बाहर के शोर से अछूती है। यह आश्रम से प्राप्त होनेवाला उपहार है: इस बात का पता लग जाना कि हमारे भीतर ही शांति का स्रोत है, वह शरण-स्थल है जिसकी हमें तलाश करनी है। यह इस सरल से सत्य को प्रकट करता है कि शांति प्राप्त करने के लिए संसार से कहीं दूर भागने की ज़रूरत नहीं है, ज़रूरत जीवनरूपी तूफ़ान में मन को स्थिर करने की है।