सैबथ (विश्रामदिवस) क्या है?
बाइबल में कहा गया है कि सिनाई पर्वत पर इसराइल के लोगों को दस आदेश दिए गए थे–जो इस प्रकार हैं:
- मैं तुम्हारा परमपिता हूँ, परमेश्वर हूँ।
- मेरे अतिरिक्त तुम किसी और को परमात्मा न मानना।
- तुम अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ में न लेना।
- स्मरण रहे कि विश्रामदिवस को पवित्र बनाए रखना।
- अपने पिता और माता का आदर करना।
- तुम हत्या न करना।
- तुम व्यभिचार न करना।
- तुम चोरी न करना।
- तुम किसी के विरुद्ध झूठी गवाही न देना।
- तुम लोभ न करना।
आज हम चौथे आदेश के बारे में सोच-विचार करेंगे। पहले तीन आदेशों, जो कि उस एक परमात्मा के प्रति विश्वास और करनी में प्रेम, दृढ़ता और निष्ठा बनाए रखने की नींव तैयार करते हैं, को बिना बढ़ाए या परिवर्तित किए हमें “स्मरण रहे कि विश्रामदिवस को पवित्र बनाए रखना” का आदेश दिया गया है। बाइबल से संबंधित अन्य संस्करणों में ‘स्मरण रहे’ (remember) शब्द को ‘रखना’ (keep) शब्द से बदल दिया गया है।
विश्रामदिवस महत्त्वपूर्ण क्यों है? विचार करने योग्य विषय यह नहीं है कि सातवाँ दिन विशेष है या नहीं, बल्कि यह विशेष समय की पवित्रता की धारणा से संबंधित है, जब हम अपना ध्यान परमात्मा पर केंद्रित करते हैं–मन को परमात्मा की याद में लगाते हैं। बीसवीं सदी के दर्शनिक अब्राहम जोशुआ हेशेल ने सांसारिक सुरक्षा-स्थल या बड़े गिरिजाघर की बजाय अपना समय परमात्मा की भक्ति में लगाने के विचार को “समय का पवित्र-स्थान” कहा है।
यह आराम करने और पुन:आरम्भ के समय का प्रतीक है। यह जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को नई दिशा देने का समय है–अंतर्मुख अभ्यास करते हुए अपने अस्तित्व की गहराई में तल्लीन होने का समय है।
विश्रामदिवस हमें अपने ध्यान को जीवन के उद्देश्य पर केंद्रित करने की: अपनी आत्मा को इसके स्रोत परमात्मा के पास निज-घर वापस ले जाने के हमारे वचन की याद दिलाता है–यह अपने ध्यान को परमात्मा और उसके प्रेम पर केंद्रित करने, उसके द्वारा दिए गए जीवनरूपी उपहार के लिए शुक्रगुज़ार होने का समय है।
हम किस तरह अपने उस आंतरिक शरण-स्थल, समय के पवित्र-स्थान में प्रवेश कर सकते हैं? अंतर्मुख होकर। हमें वह युक्ति, विधि, अभ्यास सिखाया गया है। एक बार जब हम अपने सतगुरु से यह अभ्यास सीख लेते हैं फिर हमें केवल सिमरन, ध्यान, भजन (शब्द-धुन को सुनना) को समय देना है।
परमार्थी पत्र, भाग 2 की भूमिका में कहा गया है:
हमारी आत्मा परमात्मा का अंश है, उस सतनाम समुद्र की एक बूँद है। आत्मा को अपने मूल से बिछुड़े हुए लाखों-करोड़ों साल हो गये हैं। हर्ष-शोक और सुख-दु:ख की इस दुनिया में आत्मा एक परदेसी की तरह है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के इस निचले देश में किसी भी चीज़ से इसका कोई मेल नहीं है। जब तक आत्मा अपने निज-घर वापस नहीं लौटती, तब तक इसके दु:खों और मुसीबतों का अन्त न हो सकता है और न ही होगा। हमारा शरीर हरि-मन्दिर है और हम इसके अन्दर ही उस हरि के साथ मिलाप कर सकते हैं। वह कुल मालिक न कभी किसी को बाहर मिला है, न मिल सकता है।
दुनिया के सभी संत, ऋषि-मुनि और पैग़ंबर इस बात की पुष्टि करते हैं कि “परमात्मा का साम्राज्य हमारे अंदर है” और मुक्ति प्राप्ति के लिए जीव को बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है। परमात्मा “नौ द्वारों के इस मंदिर” (हमारे शरीर) में विराजमान है। हमें केवल एक ऐसे शिक्षक या मार्गदर्शक की आवश्यकता है जो हमारे परमपिता परमात्मा के महल में प्रवेश के मार्ग का रहस्य जानता है। यह केवल मनुष्य जन्म में ही संभव है। किसी अन्य प्रजाति के पास न तो इसकी क्षमता है और न ही उन्हें यह सौभाग्य प्राप्त है। विज्ञान या कला के क्षेत्र में ज्ञान प्राप्त करने के लिए शिक्षक का होना जितना आवश्यक है उतना ही आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए शिक्षक का होना ज़रूरी है। यह अज्ञात मार्ग इतना टेढ़ा-मेढ़ा, पेचीदा और भूलभुलैया जैसा है कि आत्म-ज्ञान प्राप्त कर चुके किसी महात्मा के मार्गदर्शन के बिना कोई भी जीव इस पर चल नहीं सकता। ऐसे मार्गर्दशक का देह में होना भी ज़रूरी है, जो हमें सबसे ऊँचे रूहानी मण्डल, जो मृत्यु और प्रलय से परे है, में ले जा सकता हो और जहाँ से वापस इस रचना में नहीं आना पड़ता। ऐसे संत-सतगुरु हमेशा इस संसार में मौजूद होते हैं। देहरूपी चोला छोड़ चुके संत-महात्माओं या धर्मग्रंथों में दर्ज उनका उपदेश हमारी ज़्यादा मदद नहीं कर सकता।
परमात्मा से साक्षात्कार की युक्ति जो सभी संत-महात्माओं द्वारा समझाई गई है, चाहे वे किसी भी देश या धर्म से संबंध रखते हों, सदा एक ही रही है और सदा एक ही रहेगी। यह युक्ति किसी इनसान द्वारा नहीं बनाई गई है कि इसमें किसी संशोधन, कुछ जोड़ने या परिवर्तन करने की ज़रूरत हो। यह परमात्मा द्वारा बनाई गई है और उतनी ही पुरानी है जितनी यह रचना है। इसके तीन भाग हैं:
पहला, सिमरन या परमात्मा के पवित्र नामों को दोहराना है। यह दुनिया में फैले हमारे ध्यान को वापस आँखों के मध्य व पीछे ‘तीसरे तिल’ पर ले आता है जो हमारी आत्मा और मन का मुख्य केंद्र है।
दूसरा, ध्यान या अपने सतगुरु के अविनाशी स्वरूप का चिंतन करना है। यह ध्यान को तीसरे तिल पर स्थिर रखने में मदद करता है।
तीसरा, भजन या अनहद शब्द या दिव्य-धुन को सुनना है जो हर समय हमारे अंदर धुनकारें दे रही है। इस दिव्य-धुन की सहायता से हमारी आत्मा ऊँचे रूहानी मण्डलों में चढ़ाई करती हुई आख़िरकार परमात्मा से मिलाप करती है।
संक्षेप में, यह उस आध्यात्मिक अभ्यास का सार है जिसे हर युग और देश में हुए संत-सतगुरु परमात्मा से साक्षात्कार के लिए अपने शिष्यों को सिखाते रहे हैं। भाग्यशाली हैं वे जीव जिनका पूर्ण सतगुरु से मिलाप हो जाता है जो उन्हें निज-घर वापस पहुँचा देते हैं।