विरह की अहमियत
सुलतान महमूद को उड़ता हुमा (एक काल्पनिक पक्षी) दिखाई दिया।उसने फ़ौज से कहा कि जाओ और अपनी-अपनी क़िस्मत आज़मा लो। हर कोई दायें-बायें दौड़ने लगा, लेकिन अयाज़ उनमें दिखाई नहीं दिया। सुलतान ने अपने आप से कहा, “क्या मेरा अयाज़ नहीं गया? आशा है कि हुमा की छाया उस पर पड़ जायेगी।” उसने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई तो अयाज़ का घोड़ा दिखाई दिया, और साथ ही रोने और कराहने की आवाज़ सुनाई दी। आवाज़ किसकी है, यह जानने के लिए वह नीचे झुका।
उसे घोड़े के नीचे नंगे सिर पड़ा अयाज़ रोता दिखाई दिया। उसने पूछा, “तुम क्या कर रहे हो? तुम गये क्यों नहीं?” अयाज़ ने जवाब दिया, “आप ही मेरे हुमा हैं, और अगर मैं ऐसी कोई परछाईं ढूँढूँ तो वह आपकी ही परछाईं होगी। उसे प्राप्त करने के लिए अगर मुझे आपसे दूर जाना पड़े तो मैं उसकी कामना ही क्यों करूँगा?”
महमूद ने उसे अपने पास खींच लिया, उनकी परछाइयाँ आपस में मिलीं और एक ऐसी परछाईं बन गई जिसकी बराबरी हज़ार हुमाओं की परछाइयाँ भी नहीं कर सकती थीं।
शम्स तब्रीज़ी: रूमी के कामिल मुर्शिद
शिष्य होने के नाते, हम जीवन में जो कुछ पाना चाहते हैं, हमारे सतगुरु उसका साकार रूप हैं। कोई भी चीज़ हमें उनसे ज़्यादा ख़ुशी नहीं दे सकती। उनके वचन हमारे दु:खी हृदय को सुकून देते हैं, उनकी मुस्कान हमें चिंता-मुक्त करनेवाली औषधि है। उनकी दृष्टि में वह आत्मीयता है जो हमने पहले कभी किसी और की नज़र में अनुभव नहीं की।
हम जानते हैं कि अपने गुरु की संगति में हम जो महसूस करते हैं वह सिर्फ़ बुद्धि या हमारी पूर्वधारणाओं की वजह से नहीं होता। उनमें कुछ ऐसा है जो हमें अंदर तक छू लेता है और चाहे वह कुछ भी हो, इससे हमें पूर्णता का एहसास होता है।
हम संतमत के उपदेश द्वारा समझ जाते हैं कि अपने सतगुरु की मौजूदगी में हम जो महसूस करते हैं वह हमारे रचयिता के साथ हमारे रिश्ते की झलक मात्र है। हम परमात्मा के साथ वह रिश्ता क़ायम कर सकते हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे संत-महात्मा शब्द के अभ्यास द्वारा करते हैं। सतगुरु हमें हमेशा समझाते हैं कि देहस्वरूप हमारी मंज़िल नहीं है, बल्कि यह वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने वास्तविक स्वरूप–परमात्मा के पास लौट सकते हैं।
देहस्वरूप सतगुरु का मक़सद है हमें परमपिता परमात्मा के प्रेम और भक्ति में सराबोर करना, हमें संतमार्ग पर लाना और सतगुरु से एकरूप होने के लिये गहरी तड़प पैदा करना। कुदरती बात है कि जब सतगुरु देहस्वरूप में हमारे बीच होते हैं तो हम उसके पीछे भागते-फिरते हैं, हमें शांति और ख़ुशी महसूस होती है। लेकिन यह केवल किसी बहुत ऊँची चीज़ को प्राप्त करने का केवल साधन है। कभी-कभी यह हमारे हित में होता है कि हम सतगुरु से दूर हों। क्योंकि जब हम उसे बाहर नहीं देख सकते, तो हमारे पास उसे अपने अंतर में ढूँढ़ने के अलावा और कोई चारा नहीं होता।
महाराज चरन सिंह जी, संत संवाद, भाग 3
सतगुरु हमें प्रेरणा देते हैं कि परमात्मा के पास वापस पहुँचने के लिए हम अपना रूहानी सफ़र शुरू करें और ऐसा करने के लिए वह हमारे साथ प्रेम, विरह और जुदाई का एक अति सुंदर खेल खेलते हैं। एक शिष्य के लिए अपने सतगुरु की जुदाई बहुत ज़्यादा दु:खदायी है, लेकिन यही उसे प्राप्त होनेवाला सबसे बड़ा वरदान भी है। जब तक हम किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं करते, हम उसे प्राप्त करने के लिए कभी कोशिश नहीं करेंगे।
प्यार की अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए विरह के अलावा और कोई ईंधन नहीं है; प्रियतम की खोज के लिए प्रेरित करनेवाली और कोई प्रेरणा नहीं है। चाहे विरह कितनी भी दु:खदायी क्यों न हो, इस विरह का होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि इसी के कारण हम परमात्मा रूपी प्रियतम के साथ मिलाप करने के लिए हर तरह की क़ुर्बानी देने को तैयार हो जाते हैं।
हम में से बहुत-से लोग जानते हैं कि सतगुरु की उपस्थिति मे हमें कितनी ख़ुशी मिलती है। हम यह भी जानते हैं कि जब हम उनसे जुदा होते हैं तब हम उनकी याद में कितना तड़पते हैं। लेकिन इस विरह के कारण दिल में उनकी गहरी याद बनी रहती है भले ही यह कितनी भी कष्टदायक हो और यह उन्हें भूल जाने से कहीं अधिक बेहतर है।
आमतौर पर प्रेमी दो विशेष अवसरों पर प्रियतम के ख़यालों में खोया रहता है; उसके आगमन से ठीक पहले और उसके चले जाने के ठीक बाद। शारीरिक रूप से दूरियाँ तो होती हैं, लेकिन जब हृदय प्रियतम के ख़यालों में खोया होता है, तब क्या कोई सच में कह सकता है कि वह उससे जुदा हो गया है?
मीराबाई को अपने गुरु से प्रेम था। किसी ने मीराबाई से पूछा कि तुम उन्हें भूल क्यों नहीं जाती? तुम विरह में इतनी दु:खी हो, इतने कष्ट में हो। उसने कहा: मुझसे यह प्रेम मत छीनो। मुझसे चाहे कुछ भी ले लो, पर मुझसे मेरे गुरु का प्रेम मत छीनो। मैं इस विरह से अलग होने के बजाय इसके साथ जीना चाहती हूँ। उस प्रेम में सुख होता है और एक प्रेमी किसी भी क़ीमत पर उस विरह की पीड़ा से मुक्त होना नहीं चाहेगा।
महाराज चरन सिंह जी, संत संवाद, भाग 3
ऐसा कहा जाता है कि विरह दोधारी तलवार है; जैसे-जैसे हृदय में पीड़ा को सहन करने की शक्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे इसके अंदर आनंद का अनुभव करने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। हृदय या दूसरे शब्दों में कहें तो चेतना की कोई सीमा नहीं होती; विरह के बढ़ने पर हम जिस आनंद और जुदाई की पीड़ा को महसूस करते हैं, वह इसी चेतना का विस्तार है।
इस सबके पीछे हमारे सतगुरु का हाथ होता है। हमें बस उनके द्वारा दिखाए मार्ग पर चलना है; जब उन्हें लगेगा कि उनसे जुदा होने में हमारी भलाई है तो वह हमें ख़ुद से जुदा कर देंगे अन्यथा वह हमें अपनी मौजूदगी द्वारा प्रेरित करेंगे।
आख़िरकार भजन-सिमरन ही सतगुरु द्वारा जलाई गई प्रेम की लौ को और अधिक बढ़ाएगा।
जितना ज़्यादा वक़्त हम भजन-सिमरन को देते हैं उतना ही हमारा प्रेम दृढ़ होता है, पनपता है, हम भक्ति भाव से भर जाते हैं। मेरा अपना विचार है कि जितना ज़्यादा वक़्त हम भजन-सिमरन को देते हैं, उतना ही बिछोड़े का दु:ख हमें महसूस होता है। आप जितना बिछोड़े का दु:ख महसूस करते हैं, उतनी ही अंतर में तरक्की करते हैं, क्योंकि आख़िरकार विरह की यह पीड़ा ही आपको उस हस्ती से, उस मालिक से एकरूप कर देगी।
महाराज चरन सिंह जी, संत संवाद, भाग 3
अपने सतगुरु के लिए जिस विरह को हम महसूस करते हैं, वह उनका दिया हुआ उपहार है। अगर हम इस विरह की भावना को बनाए रखें, तो यह इतनी बढ़ जाएगी जहाँ हमें एहसास होगा कि हम शरीर, मन या अहं नहीं बल्कि आत्मा हैं। हम वह आत्मा हैं जो प्रियतम से कभी भी जुदा नहीं हुई थी।