वह जिसने मुझे यहाँ भेजा है
निज-घर वापस जाने के लिए देहधारी सतगुरु का होना ज़रूरी है। हम इस ख़तरों से भरे मार्ग से बिलकुल अनजान हैं। इस मार्ग पर चलने के लिए हमें ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता है, जो पहले ही इस मार्ग पर चल चुका है और जिसे परमात्मा ने हमारे मार्गदर्शन के लिए इस संसार में भेजा है।
अगर जिज्ञासु ख़ुदा को पुकारता है तो वह उसे पुकार रहा है, जिसे उसने न कभी देखा है, न सुना है और न ही कभी छुआ है। इसलिए जिस ख़ुदा को वह पुकारता है, उसकी असलीयत पर उसे पूरा विश्वास नहीं है। लेकिन जब वह अपने मुर्शिद को पुकारता है या उनके बारे में सोचता या बोलता है, तब वह अपने निजी अनुभव से जानता है कि जिसका वह ज़िक्र कर रहा है, वह इनसान वाक़ई में है। क्योंकि इसका संबंध उसके अपने वास्तविक अनुभव से है, इसलिए “उसकी पुकार” अलग तरह की होती है और उसमें सच्चे विश्वास की ताक़त होती है।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2
हममें से बहुत-से लोग किसी न किसी धर्म से संबंध रखते हैं, जहाँ वे पहले से ही परमात्मा के साथ निजी रिश्ता क़ायम करने की शुरुआत कर चुके होते हैं। संत-महात्माओं द्वारा समझाए मार्ग पर चलने से हमें उस हस्ती से प्रेम करने का अवसर मिलता है जो वास्तव में है, इसलिए हम इस मार्ग पर खिंचे चले आते हैं क्योंकि जिस परमात्मा को कभी देखा नहीं उससे प्रेम करने की प्रेरणा कैसे मिल सकती है? अबुल-हसन ख़रकानी का कथन है:
ऐ ख़ुदा, मैं होता ही कौन हूँ जो तुझसे इश्क़ करूँ,
मैं उनसे इश्क़ करूँगा जो तुझसे इश्क़ करते हैं।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2
हालाँकि, सतगुरु के देहस्वरूप से मिलाप होना और उनकी महानता को समझ पाना इतना आसान नहीं है, इसलिए हम सतगुरु के साथ अपने संबंध के बारे में सोचने पर विवश हो जाते हैं। परिणामस्वरूप हम जाग जाते हैं: हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हमने असल में किस हद तक उनके उपदेश का सार समझा है।
सूफ़ी फ़क़ीरों का मानना है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहा शिष्य एकदम अपने अहं और इस नश्वर संसार के बंधनों से मुक्ति नहीं हासिल कर सकता। वह धीरे-धीरे और मंज़िल-दर-मंज़िल ही उन रुकावटों को दूर कर सकता है जो परमात्मा से उसकी जुदाई का कारण हैं। इनायत ख़ान आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2 में फ़ना होने की मंज़िलों के बारे में फ़रमाते हैं: “पहला क़दम है मुकम्मल हस्ती में फ़ना होना, दूसरा है मुकम्मल नाम में फ़ना होना और तीसरा क़दम है अनामी और निराकार में फ़ना होना।” आप आगे फ़रमाते हैं:
आख़िरी मंज़िल तक पहुँचने के लिए सूफ़ी धीरे-धीरे अपना आदर्श भी ऊँचा करता जाता है। सबसे पहले उसका मक़सद फ़ना फ़ि अल-शेख़ है, जहाँ वह अपने आदर्श को इनसान के रूप में इस दुनिया में चलते-फिरते देखता है और जिस तरह सिपाही लड़ाई से पहले अभ्यास करता है, उसी तरह वह अपने आदर्श की भक्ति करने का अभ्यास करता है। इसके बाद फ़ना फ़ि अल-रसूल का पड़ाव आता है, जब वह आदर्श को रूह के रूप में देखता है, उनकी रूहानियत को देखता है उनमें उन लाजवाब ख़ूबियों को देखता है जिनको वह ख़ुद पाना चाहता है। इसके बाद उसका मक़सद है, फ़ना फ़ि अल-अल्लाह के ऊँचे मुक़ाम तक पहुँचना, जहाँ उस आदर्श के लिए प्यार और भक्ति भाव होता है जो सभी गुणों से परे है और जो सभी गुणों की चरम अवस्था है।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2
यह सब हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि सतगुरु के देहस्वरूप से दूर होने पर क्या हम उनके शब्द स्वरूप तक पहुँचने के लिए प्रेरित होते हैं, जो कि ‘नाम-दान की प्राप्ति का उद्देश्य’ है। हमें भजन-सिमरन करने के लिए और कितनी अधिक प्रेरणा चाहिए ताकि हम अपनी आत्मा की पहचान कर सकें? इसका एक अतिरिक्त लाभ यह है कि इससे सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। क्या हम केवल ऊपरी तौर पर ही उपदेश को सुनते रहना चाहते हैं या गहराई में जाकर उस सत्य का अनुभव करना चाहते हैं जिसका अनुभव करने का सामर्थ्य पहले से ही हमारे अंदर मौजूद है?
सतगुरु की मौजूदगी में शिष्य को प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक है। परंतु यदि अनजाने में हम सतगुरु के देहस्वरूप को किसी ऊँचे पद पर आसीन कर देते हैं या उसी पर बहुत अधिक निर्भर हो जाते हैं, तो हम सत्संग, सेवा और सतगुरु के बाहरी दर्शनों को ही ‘भक्ति’ मानकर उसी तक सीमित होकर रह जाते हैं। आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2 में रूमी फ़रमाते हैं, “कामिल मुर्शिद, मुरीद के द्वारा बनाए गए अपने बुत को तोड़ देते हैं।” यानी मुर्शिद, मुरीद के ध्यान को उस सत्य की ओर मोड़ते हैं जो उसे अपने अंदर से ही प्राप्त होगा। बहाउद्दीन नक्शबंद फ़रमाते हैं:
हम मंज़िल तक पहुँचने का ज़रिया हैं। यह ज़रूरी है कि खोजी अपने आप को हम से अलग कर ले और सिर्फ़ अपनी मंज़िल पर ध्यान दे।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2
शिष्य के ध्यान को सतगुरु के देहस्वरूप से हटाकर अंतर में उस परम सत्य की ओर तथा उसके द्वारा चुने गए लक्ष्य की ओर मोड़ना कितना ज़रूरी है, इस पर आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2 से उद्धरित नीचे दिया गया क़िस्सा बहुत सुंदर ढंग से प्रकाश डालता है:
एक धनवान नौजवान अबू-सईद अबील-ख़ैर का मुरीद बन गया। उसने अपनी सारी जायदाद ग़रीबों में बाँट दी और तन-मन से रूहानियत की राह पर चलने के लिए तैयार हो गया। तीन वर्ष तक उसने बिना कोई शिकायत किए, हर तरह का छोटे-से-छोटा काम करते हुए मुरीदों के संप्रदाय की सेवा की।
इसके बाद अबू-सईद ने अपने मुरीदों को उस नौजवान को नज़रअंदाज़ करने और उसके साथ सख़्ती से पेश आने के लिए कहा। मुरीदों ने ऐसा ही किया। इस वक़्त के दौरान मुर्शिद ख़ुद उस नौजवान के साथ बहुत प्यार से पेश आए और नौजवान सब्र के साथ अपना दु:ख झेलता रहा। इसके बाद अबू-सईद ने भी उसे नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया। वह उसके साथ रूखा बर्ताव करते थे और ऐसा लगता था कि वह उसकी तरफ़ कभी देखते ही नहीं थे। हालाँकि मुर्शिद के लंगर में सभी को मुफ़्त भोजन मिलता था, लेकिन अबू-सईद ने हुक्म दिया कि उस नौजवान को खाना न दिया जाए। तीन दिन तक नौजवान को रोटी का एक निवाला भी नसीब नहीं हुआ।
चौथी रात को बहुत-से लोग इकट्ठे हुए, जिनको कई तरह का ज़ायकेदार खाना परोसा गया, लेकिन फिर भी उस नौजवान की तरफ़ किसी ने ध्यान नहीं दिया। वह खाने के एक निवाले के बिना ही सारी रात दरवाज़े पर खड़ा रहा। आख़िर में अबू-सईद ने चारों तरफ़ निगाह घुमाई और उसकी तरफ़ ऐसे देखा मानो उसे पहली बार देख रहे हों। उन्होंने उसे डाँटते हुए कहा कि वह उससे बहुत नाराज़ हैं। उन्होंने हुक्म दिया कि नौजवान को बाहर निकाल दिया जाए और उससे कहा कि वह कभी भी वापस न आए। नौजवान बहुत घबराकर वहाँ से चला गया। वह एक पुरानी मसजिद में जाकर गिर पड़ा और सारी रात रोता हुआ फ़रियाद करता रहा, ‘हे मेरे मौला! अब तेरे अलावा मेरा कोई सहारा नहीं है।’ फिर अचानक ही उसके मन में बहुत शांति छा गई।
जैसे ही नौजवान का मन शांत हुआ, मुर्शिद ने मुरीदों को मोमबत्ती लाने के लिए कहा और वे सब ख़ानक़ाह से पुरानी मसजिद की तरफ़ चल पड़े। जब वे वहाँ पहुँचे, तब नौजवान अभी भी उस अजीब-सी हालत में था और ख़ुशी के आँसू बहा रहा था। ‘मेरे मुर्शिद आपने मेरे साथ यह क्या किया, नाक़ामयाबी की इस हालत में होकर भी मैं ख़ुशी से भर गया हूँ’…
मुर्शिद ने कहा, “मेरे बच्चे, तुमने सब कुछ और सभी को छोड़ दिया था, लेकिन अभी भी कोई था जो तुम्हारे और तुम्हारे ख़ुदा के बीच खड़ा था: वह मैं था! तुम्हारी उम्मीदों, ज़रूरतों और डर के मंदिर में सिर्फ़ मेरा ही बुत बचा था और उसे तुमसे दूर हटाने की ज़रूरत थी ताकि तुम अपनी ख़ुदी को मिटाकर उस महबूब की पनाह ले सको। अब उठो, चलो हम इस जीत का जश्न मनाएँ।”
इस क़िस्से से यह स्पष्ट हो जाता है कि सतगुरु किस बात से प्रसन्न होते हैं। वह हमारा साथ कभी नहीं छोड़ते, पर सवाल यह है कि हम उनके हुक्म का कितना पालन कर रहे हैं? वह हमें विश्वास दिलाते हैं कि हम अपने अंतर में दिव्य प्रकाश का अनुभव कर सकते हैं। हम उस एक (परमात्मा) से मिलाप करने के लिए इस सुनहरी अवसर का कितना लाभ उठा रहे हैं, जिसने सतगुरु को यहाँ भेजा है।
अबू-सईद ने अपने आख़िरी वक़्त में अपने मुरीदों को नसीहत देते हुए ये अल्फ़ाज़ कहे: “ख़ुदा को कभी न भूलो, एक पल के लिए भी नहीं। तुम्हें पता है कि मैंने ज़िंदगी में कभी तुम्हें अपने पास नहीं बुलाया। मैंने ज़ोर देकर यही कहा है कि असल में हमारी कोई हस्ती नहीं है। मैं कहता हूँ कि ख़ुदा की हस्ती है और यही काफ़ी है।”
गुरु असल में शब्द ही है। जीवों के लिए वह इस दुनिया में शरीर धारण करके उनको मालिक तक पहुँचाने का ज़रिया बनता है और फिर अपना काम पूरा करके उस शब्द में ही जा समाता है। इसी तरह इनसान की आत्मा (सुरत) भी उस शब्द की ही किरण है और किसी सच्चे गुरु को पाकर वह भी वापस उस शब्द में ही जा समाती है। गुरु नानक साहिब भी यही फ़रमाते हैं, ‘सबद गुरू सुरत धुन चेला।’
महाराज चरन सिंह जी, संत मार्ग