सहन-शक्ति
धरती पर स्वर्ग से उद्धिरत
बड़े महाराज जी द्वारा दूर-दराज के गाँवों में किए गए दौरे बहुत कठिन होते थे, वहाँ पर पहुँचने के लिए बस, ट्रेन, घोड़े पर और पैदल सफ़र करना पड़ता था। वहाँ पर रहने का प्रबंध अकसर बेआरामी भरा और असुविधाजनक होता था। बहुत-से गाँवों में, महाराज जी झोपड़ियों में सोते थे, जहाँ पर उनकी चारपाई के लिए भी मुश्किल से पर्याप्त जगह होती थी। दो चारपाइयों को एक-दूसरी पर झुकाकर और उनके खुले किनारों को सफ़ेद चादर से ढककर गुसलख़ानों का इंतज़ाम किया जाता था। मुझे याद है कि एक बार, पहाड़ों पर सर्दियों की एक बहुत अधिक सर्द सुबह, मैं स्नानादि के लिए इनमें से एक गुसलख़ाने में गया; मैं काँप रहा था और इतने बर्फ़ीले ठंडे पानी के साथ, मैं केवल अपने चेहरे और हाथों को ही जल्दी-जल्दी धो पाया था। लेकिन महाराज जी, बिना किसी शिकायत के उन अनुपयुक्त और ठंडे ‘गुसलख़ानों’ में और बर्फ़ जैसे ठंडे पानी के साथ, सुबह पाँच बजे स्नान कर लेते और लगभग छ: बजे संगत से मुलाक़ात के लिए तैयार हो जाते थे।
इन दौरों में हुज़ूर की सहन-शक्ति असाधारण होती थी। जब हुज़ूर लंबे दौरों पर जाते थे, आप वहाँ सत्संग के वक़्त पहुँचते, थोड़ी देर आराम करके सीधा सत्संग में तशरीफ़ ले जाते और साथ गए लोगों को फ़ौरन रात का खाना खाने का आदेश दे देते। हुज़ूर ख़ुद नहीं खाते थे क्योंकि आप हमेशा सत्संग और भोजन के बीच में दो घंटे का अंतराल रखते थे। सत्संग समाप्त होते-होते कई बार शाम के चार बज जाते। फिर आप लंगर में दृष्टि डालने के लिए चले जाते। वहाँ पर अकसर सत्संगियों से मुलाक़ातें करते, किसी प्रेमी सत्संगी के अनुरोध पर उसके घर तशरीफ़ ले जाते और प्राय: आप शाम को छ: या सात बजे तक खाना खाते। आप सुबह के समय पिए हुए सिर्फ़ एक गिलास दूध के सहारे ही पूरा दिन गुज़ार लेते। ये सब करते हुए आप सदा मुस्कुराते और प्रसन्न रहते और सत्संग का आयोजन करने वाले कभी जान भी न पाते कि आपने न तो खाना खाया होता और न ही आराम किया होता।
शिमला और डलहौज़ी की पहाड़ियों पर हुज़ूर के साथ चलते-चलते हम लोग तो थककर चूर हो जाते, परन्तु सरकार इतनी तेज़ी व फुर्ती से चढ़ाई चढ़ते चले जाते कि युवा सैनिकों को भी परेड और पी. टी. के दिन याद आ जाते। मोटर की यात्रा में तो आपकी सहन-शक्ति की कोई सीमा ही न थी। उदाहरणार्थ केवल एक बार का वृत्तान्त यहाँ देता हूँ जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हुज़ूर कितने कठिन परिश्रम के अभ्यस्त थे। एक बार जब आप ऐबटाबाद तशरीफ़ ले गये तब वहाँ से लौटते समय की बात है। हुज़ूर सुबह उठकर स्नानादि से निवृत्त हुए और पहले ऐबटाबाद में सत्संग किया। सत्संग करते ही मोटर से रवाना होकर रावलपिण्डी पहुँचे। यहाँ संगत के अनुरोध पर दो घण्टा सत्संग प्रदान किया। सत्संग के बाद वहाँ से रवाना होकर लायलपुर पहुँचे। लायलपुर जाने से पहले शाहदरा (लाहौर से चार मील पश्चिम में) जाना पड़ता था और फिर वहाँ से बाहर के रास्ते लायलपुर जाते थे। यह यात्रा तीन सौ मील से कुछ ऊपर ही होगी। लायलपुर पहुँचकर सत्संग किया। वहाँ से चल कर रात को दो-तीन बजे के क़रीब कपूरथला पहुँचे जहाँ सवेरे पाँच बजे से किसी प्रेमी के घर में विवाहोत्सव था। हुज़ूर समय से पहले क़रीब साढ़े चार बजे वहाँ मौजूद थे। आनन्द कारज के बाद सुबह सात-आठ बजे चल कर आप जालन्धर आये। यहाँ आकर हुज़ूर ने उस मोटर ड्राइवर को, जिसे सरदार सेवा सिंह ने हुज़ूर को रावलपिण्डी से लाने के लिये (लायलपुर से) भेजा था, विदा किया और उसे एक पगड़ी व ग्यारह रुपए इनाम में दिये। हुज़ूर नौकरों को इनाम देने में बहुत उदार थे। वह ड्राइवर क़ौम का पठान था, जलालाबाद (अफ़गानिस्तान) का रहने वाला था। विदा के वक़्त सलाम करके बोला, “बाबा ! हम लोग को फिर भी याद करना। हम तीस साल का जवान आदमी नींद और थकान से बेहाल हो गया, मगर तुम तो न सोया, न खाया-पीया। चेहरे पर नूरे-इलाही बरसता है। तुम आदमी नहीं, ख़ुदा का दीदार है।” उस समय हुजूर की आयु 80 वर्ष से ऊपर थी।