आत्म-ज्ञान के लिए तनाव-मुक्त रहना
हँसना इनसान के कुछ अनुपम गुणों में से एक है। इनसान के सिवाए और कोई जीव नहीं हँस सकता। क्या आपने कभी किसी पक्षी या कुत्ते को हँसते हुए देखा है; वे मुस्कुरा सकते हैं, लेकिन हँसने का सौभाग्य केवल मनुष्यों को ही प्राप्त है। क्योंकि परमात्मा ने इनसानों को अपनी शक़्ल में बनाया है, शायद इसका मतलब यह है कि परमात्मा भी हँसते हैं, इसलिए हम यह मान सकते हैं कि हँसना स्वाभाविक रूप से आत्मिक है।
महाराज चरन सिंह जी हँसमुख होने और जल्दी नाराज़ हो जाने के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हैं:
इस दुनिया में हर व्यक्ति ख़ुश रहना चाहता है। जब आपके अंतर में ख़ुशी होती है तब आप इसे दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं। हँसी-मज़ाक यही है और कुछ नहीं। हँसी-मज़ाक करने का मतलब दूसरों पर ताने कसना या ख़ुद को बेवकूफ़ बनाना नहीं है। मज़ाक का आनंद लेने का मतलब यह है कि आप भी उसका आनंद लें और दूसरा व्यक्ति भी उसका आनंद ले। आपको किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाकर मज़ाक नहीं करना चाहिये, इसे मज़ाक नहीं कहा जाता। यह दूसरे व्यक्ति पर ताने कसना या उसकी खिल्ली उड़ाना है और यह ग़लत है। हँसी-मज़ाक करने से मतलब है कि दूसरा व्यक्ति भी उसका उतना ही मज़ा ले जितना कि आप ले रहे हैं। जब आप अंतर में ख़ुश होते हैं तब आप उस ख़ुशी को ज़ाहिर किये बिना और दूसरों के साथ बाँटे बिना नहीं रह सकते। अगर आप किसी दु:खी व्यक्ति के पास जायें तो वह आपको भी दु:खी कर देगा। आप किसी ख़ुशमिज़ाज व्यक्ति के पास जायें तो वह आपको ख़ुश कर देगा। वह दो मिनट में ही आपको तनावरहित कर देगा।
संत संवाद, भाग 3
हँसी-मज़ाक हमें सकारात्मकता की ओर ले जाता है और हमें हमारी निम्न, मूल प्रवृत्तियों से मुक्त कर देता है। अपने व्यक्तित्त्व की उन कमियों को दूर करते-करते, हम अपने व्यक्तित्त्व को सहजता से लेना भूल जाते हैं (कहीं न कहीं यह डर बढ़ता जाता है कि किसी को इनके बारे में पता न लग जाए)। हालाँकि हँसी-मज़ाक द्वारा हमें ख़ुद पर, अपनी परिस्थितियों पर हँसने में मदद मिलती है और यह छिपे हुए दर्द को भी कम कर देता है, आख़िरकार यही हास्य-वृत्ति ख़ुद को पूरी तरह से स्वीकार करने में हमारी मदद करती है। हँसी-मज़ाक हमें तनाव-मुक्त करने और हमारे संतुलन को बनाए रखने में मदद करता है, ये दोनों गुण भजन-सिमरन के लिए ज़रूरी हैं।
महात्मा बुद्ध किसी विषय को समझाने के लिए अकसर ऐसी सरल और सटीक उपमा देते थे जिसका खंडन करना असंभव होता था। अपने शिष्य श्रोणा (Shrona) के साथ महात्मा बुद्ध का वार्तालाप इस बात का एक प्रभावशाली उदाहरण है कि वह शिष्यों के प्रतिदिन के जीवन से लिए गए उदाहरण द्वारा समझाते थे। श्रोणा एक रागी था और वीणा बजाने में निपुण था:
एक बार महात्मा बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद, श्रोणा को आंतरिक साधना की युक्ति सिखा रहे थे। श्रोणा साधना की सही युक्ति नहीं सीख पा रहा था क्योंकि कभी तो वह बहुत उत्तेजित हो जाता था और कभी बिलकुल ध्यान नहीं देता था। वह महात्मा बुद्ध के पास गया। महात्मा बुद्ध ने पूछा, “जब तुम नौसिखिया थे, तब तुम अच्छी वीणा बजाते थे या नहीं?”
“हाँ, मैं बहुत अच्छी वीणा बजाता था।”
“तुम्हारी वीणा में से सबसे बढ़िया सुर कब निकलते थे, जब उसके तार बहुत ढीले होते थे या जब वे बहुत कसे होते थे?”
“सबसे उत्तम सुर तब निकलते थे जब उसके तार न तो बहुत अधिक कसे होते थे और न ही बहुत ढीले होते थे।”
महात्मा बुद्ध ने कहा, “तुम्हारे मन पर भी यही नियम लागू होता है।” महात्मा बुद्ध के उपदेश पर अमल करने से श्रोणा ने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2
हुज़ूर महाराज जी हमें समझाते हैं, “हँसी-मज़ाक की यह भावना परमात्मा का दिया हुआ उपहार है।” जब हम तनाव मुक्त होते हैं, सिर्फ़ तभी हम हँसी-मज़ाक कर सकते हैं। अगर हम अंदर से ख़ुश हैं तो स्वाभाविक रूप से हम ख़ुशी ही फैलाएँगे। यदि हँसी-मज़ाक सहज रूप से आत्मिक है तो इसे विकसित करने का साधन भी आत्मिक ही होना चाहिए।
नानक दुखीआ सभ संसार॥ सो सुखीआ जो नाम अधार॥
डिस्कोर्सेज़ ऑन संत मत, वॉल्यूम I
हम जानते हैं कि भजन-सिमरन ही सच्ची ख़ुशी प्रदान करता है, लेकिन इसके बारे में एक गलत धारणा है कि भजन-सिमरन हमें गंभीर बना देता है।
किस तरह की गंभीरता? क्या इससे हमें ख़ुशी नहीं मिलती?…गंभीरता का मतलब है कि आप जीवन को महत्त्वहीन नहीं समझ रहे। आप अपनी मंज़िल, अपनी राह और अपने उसूलों को बड़ी गंभीरता से लेते हैं। बेशक आपको इन्हें गंभीरता से लेना भी चाहिये। लेकिन यदि आप ख़ुश रहते हुए सफ़र करते हैं तो आप अपना सफ़र ख़ुशी-ख़ुशी तय कर लेते हैं।
महाराज चरन सिंह जी, संत संवाद, भाग 3
हम जिस परम आनंद की खोज कर रहे हैं, वह हमें तब प्राप्त होता है जब हमारी लिव प्रकाश और धुन के साथ जुड़ जाती है–जब हमारा ध्यान दुनिया पर केंद्रित न रहकर परमात्मा पर केंद्रित हो जाता है। हम आध्यात्मिक मार्ग को अपनाते हैं, गुरु की खोज करते हैं, उनके उपदेश का पालन करते हैं और नियमित रूप से भजन-सिमरन का अभ्यास करते हैं। नियमित रूप से भजन-सिमरन के अभ्यास द्वारा हम अपनी सुरत को शरीर के नौ द्वारों–जिनमें इंद्रियों के नीरस भोग हैं–में से इकट्ठा करने में सफल हो जाते हैं। अपने ख़याल को इनमें से निकाल लेने पर इंद्रियों के भोगों का रस फ़ीका पड़ जाता है और अपने ध्यान को तीसरे तिल पर स्थिर करके हम इनसे ऊपर उठ जाते हैं। हमें नामरूपी अमृत द्वारा सच्चा सुख प्राप्त हो जाता है। भजन-सिमरन द्वारा हमें अपने वास्तविक स्वरूप और इस मायामय संसार की असलियत का बोध हो जाता है। जैसे-जैसे हमारी जागरूकता बढ़ती है, हमें समझ आने लगती है कि हम जिन भी हालात से गुज़रते हैं, वे हमारे कर्मों के कारण हैं और अस्थायी हैं।
कूड़ि कूड़ै नेहु लगा विसरिआ करतारु॥
किसु नालि कीचै दोसती सभु जगु चलणहारु॥
गुरु नानक देव, सत्संग संग्रह, भाग 2 से उद्धरित
जब इस दुनिया की सभी शक़्लें और पदार्थ नाशवान और क्षणभंगुर हैं तो फिर चिंता किस बात की? जब हम जानते हैं कि सब कुछ परमात्मा की मर्ज़ी से हो रहा है और वही होगा जिसमें अंत में हमारी ही भलाई है तो फिर चिंता करने का क्या लाभ है? नियमपूर्वक भजन-सिमरन करने से हमारा मन हालात को आसानी से और ख़ुशी से स्वीकार करना और परमात्मा की रज़ा में राज़ी रहना सीख जाता है।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि हलकी वस्तुएँ आसानी से ऊपर उठती हैं और प्रतिरोध उन्हें वापस नीचे की तरफ़ खींचता है। आइए हँसी-मज़ाक द्वारा स्वयं को तनाव-मुक्त करें और जीवन की घटनाओं का विरोध करने के बजाय, उन्हें हँसी में टाल दें ताकि हम स्वाभाविक तौर पर इस भौतिक जगत से ऊपर उठकर सत्य का अनुभव कर सकें और उस दिव्य परम सत्य में समा सकें।