आप बिलकुल वहीं हैं, जहाँ आप को होना चाहिए
आप आगे (भविष्य) देखते हुए बिंदुओं (घटनाओं) को नहीं जोड़ (देख) सकते हैं; आप पीछे देखते हुए ही उन्हें जोड़ सकते हैं। इसलिए आपको यह विश्वास करना ही पड़ेगा कि आपके भविष्य में ये बिंदु किसी न किसी तरह जुड़ेंगे। आपको अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर, भाग्य, जीवन, कर्म या आप उसे कुछ भी कह लें, पर विश्वास करना पड़ेगा।
स्टीव जॉब्स, मास्टर द फ़्यूचर: डोमिनेट योर लाइफ विद फ़ोर्साइट से उद्धिरत
आप अगर सोशल मीडिया पर बहुत अधिक समय बिताते हैं, तो आपको फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर ये प्रेरणात्मक संदेश लिखे दिखाई देंगे: “आप बिलकुल वहीं हैं, जहाँ आप को होना चाहिए।”
आइए इस बारे में चर्चा करते हैं, जब हम किसी बहुत बड़ी मुसीबत या तकलीफ़ में होते हैं, तो अकसर पूछते हैं–क्यों? मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है? मैंने जो सोचा था, वैसा क्यों नहीं हुआ? क्या सचमुच मैं वहीं हूँ, जहाँ मुझे होना चाहिए? अगर मैंने कोई दूसरा रास्ता चुना होता, तो क्या ज़िंदगी कुछ अलग होती?
हम अतीत के बारे में यह सोचते हुए बहुत समय गुज़ार देते हैं कि “क्या हो सकता था, क्या कर सकते थे, क्या होना चाहिए था।” पर सच तो यह है कि जीवन में जिन अच्छे-बुरे हालात का हमें सामना करना पड़ता है वह पहले से ही निर्धारित हैं। जिस तरह न तो हम मौसम का सटीक पूर्वानुमान लगा सकते हैं और न ही उसे बदल सकते हैं, ठीक उसी तरह न तो हम ज़िंदगी में होनेवाली घटनाओं का पूर्वानुमान लगा सकते हैं और न ही उन्हें बदल सकते हैं। जो हमारे भाग्य में लिखा जा चुका है, उसे स्वीकार करने के अलावा हमारे पास कोई और चारा नहीं है।
सतगुरु समझाते हैं कि जिस समय हम संसार में आते हैं, उसी समय हमारा प्रारब्ध लिख दिया जाता है और हमें उसमें से गुज़रना ही पड़ता है। प्रारब्ध हमें ऐसी परिस्थितियों में डाल देता है, जिनसे हमारे कर्मों का हिसाब आसानी से चुकता हो सके। अगर आपको दुर्घटना में चोट लगनी है, तो वह अवश्य लगती है। कर्मों का भुगतान देना ही पड़ता है। हम जीवन में घटनेवाली इन घटनाओं में किसी तरह का परिवर्तन नहीं कर सकते। जैसा कि “के सेरा, सेरा, जो होना है, वो होकर रहेगा” गीत में आता है।
ज़िंदगी में मुश्किल और उदासी-भरा दौर भी आएगा परंतु साथ ही ख़ुशी और संतुष्टि से भरपूर बेहतरीन पल भी होंगे। ये उतार-चढ़ाव टाले नहीं जा सकते। महत्त्वपूर्ण यह है कि इनके प्रति हमारा नज़रिया कैसा है। क्या हम दुनिया की कमियों-कमज़ोरियों के बारे में शिकायत करते हुए दु:खी रहना चाहते हैं या जीवनरूपी इस समुद्र में तैरते रहना चाहते हैं?
एक प्रोफ़ेसर पानी का गिलास लेकर अपनी कक्षा में दाख़िल हुई। सभी विद्यार्थी यह सोच रहे थे कि वह पूछेंगी कि यह गिलास आधा भरा है या आधा ख़ाली है। परन्तु इसके बजाय, उन्होंने पूछा “पानी का यह गिलास कितना भारी है?” कुछ विद्यार्थियों ने ऊँचे स्वर में उत्तर दिया: “250 मि. ली.!”, “125 मि. ली.!”
फिर प्रोफ़ेसर ने उत्तर दिया, “मेरे हिसाब से, वास्तव में इसका असल वज़न मायने नहीं रखता। यह इस बात पर निर्भर करता है कि मैं कितनी देर तक गिलास को पकड़ती हूँ। अगर मैं इसे सिर्फ़ एक या दो मिनट के लिए पकड़ती हूँ, तो यह बहुत हलका है। अगर मैं इसे एक घंटे से अधिक समय के लिए पकड़ती हूँ, तो शायद मेरी बाजू में दर्द होना शुरू हो जाए। लेकिन अगर मैं इससे भी ज़्यादा समय के लिए इसे पकड़कर रखती हूँ, तो मुझे ऐंठन महसूस हो सकती है और हो सकता है कि यह मेरे हाथ से ज़मीन पर ही गिर जाए। इस गिलास का वज़न तो नहीं बदला। पर जितनी ज़्यादा देर तक मैं इसे पकड़े रखती हूँ, यह उतना ही भारी महसूस होता है।”
ज़िंदगी में हम जिन भी हालात से गुज़रते हैं, उनके बारे में भी यही कहा जा सकता है। अगर हम थोड़े समय के लिए ही अपनी समस्याओं के बारे में सोचते हैं, तो हम कोई तनाव महसूस नहीं करते और आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन अगर हम तनावपूर्ण परिस्थितियों और मुश्किलों के बारे में ही सोचते रहते हैं, तो हमें बोझ महसूस होता है और हम ख़ुद को कुछ भी करने में असमर्थ पाते हैं, जब तक कि हम उन परिस्थितियों के बारे में सोचना छोड़ नहीं देते।
हमारा नज़रिया ही इस समस्या का हल है। हम यह स्वीकार कर सकते हैं कि हम वास्तव में वहीं हैं, जहाँ हमें होना चाहिए–कि जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे कोई न कोई कारण है। हम सतगुरु पर विश्वास रख सकते हैं कि हम जिन भी परिस्थितियों में से गुज़र रहे हैं, उनके पीछे कोई मक़सद है और वह इन सब से गुज़रने में हमारी सहायता करेंगे।
लेकिन अगर हम भजन-सिमरन करते हैं, अंदर शब्द से जुड़े हुए हैं, तो हमें इतनी शक्ति ज़रूर मिल जाती है कि बिना डाँवाँडोल हुए हम अपने प्रारब्ध को ख़ुशी- ख़ुशी भुगत लेते हैं।
महाराज चरन सिंह जी, संत संवाद, भाग 1
भजन-सिमरन हमें ज़िंदगी की सभी मुसीबतों और परेशानियों का सामना करने में सहायता देता है, ताकि हम अपने कर्मों का भुगतान करके वापस निज-घर लौट सकें। जब हम भजन-सिमरन में बैठते हैं, तो हम अपनी आख़िरी मंज़िल की ओर क़दम बढ़ाते हैं।
मुश्किल यह है कि हम नहीं जानते कि आगे क्या होनेवाला है या ज़िंदगी में कुछ चीज़ें हमारी मर्ज़ी के मुताबिक क्यों नहीं हो रही हैं। पर जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तब हम उन बिंदुओं को जोड़कर समझ सकते हैं जो कुछ भी हुआ है, बिलकुल सही हुआ है और इस वक़्त, हम वहीं पर हैं, जहाँ हमें होना चाहिए।