समय को समझना
इनसान ने समय को दिनों, महीनों और सालों में बाँटकर एक कैलेंडर बना लिया है। मगर परमात्मा समय से परे है। संतमत में किसी भी विशेष समय या दिन को महत्त्व नहीं दिया जाता। संतमत में कोई भी दिन अच्छा या बुरा नहीं है।
इस स्थूल जगत में जहाँ समय का अस्तित्व है, हर पल परिवर्तन हो रहा है। कुछ भी एक जैसा नहीं रहता। महाराज चरन सिंह जी इसे “समय और स्थान की रेत जो लगातार जगह बदल रही है” कहा करते थे। पर हमारे भीतर कुछ ऐसा है जो कभी नहीं बदलता।
समय बदल रहा है और बदलता रहेगा, परन्तु नाम कभी नहीं बदलता। नाम की धारा लगातार एक-सी बहती रहती है।
महाराज जगत सिंह जी, आत्म-ज्ञान
उस परमात्मा का अंश होने के कारण हमारी आत्मा कभी बूढ़ी नहीं होती। आत्मा न तो कभी जन्म लेती है, न कभी इसकी मृत्यु होती है–यह अविनाशी और अनादि है। मगर नश्वर शरीर में क़ैद होने के कारण–जो बूढ़ा भी होता है और जिसका नाश भी होता है–इनसान देख सकता है कि वह इस भौतिक जगत में समय के दायरे में क़ैद है। उसे नहाने और तैयार होने के लिए समय चाहिए; उसे कॉफ़ी बनाने के लिए समय चाहिए। यहाँ तक कि जब वह बेकार बैठा रहता है, समय तब भी बीतता जाता है।
प्रभु समय के पहिये की धुरी है। यद्यपि सब वस्तुएँ समय और स्थान में प्रभु के चारों और घूमती हैं, फिर भी प्रभु सदैव समय-मुक्त, स्थान-मुक्त और स्थिर है। यद्यपि सब वस्तुएँ उसके शब्द से उत्पन्न होती हैं, फिर भी उसका शब्द उतना ही समय-मुक्त और स्थान मुक्त है जितना वह स्वयं।
किताब-ए-मीरदाद
निस्संदेह समय हमारे नियंत्रण में नहीं है। बल्कि समय ही हमारे दैनिक जीवन को नियंत्रित करता और चलाता है। समय के कारण हमारी ज़िंदगी में अत्यधिक तनाव रहता है और खलबली मची रहती है। जहाज़ या गाड़ी पकड़ने के लिए, बच्चों को स्कूल भेजने के लिए, अपॉइंटमेंट लेने के लिए–हर कार्य को करने के लिए रोज़ समय के साथ दौड़ना पड़ता है।
अगर संभव होता तो इनसान समय को नियंत्रण में करनेवाली मशीन बना लेता–जिसमें एक बटन ऐसा होता जिससे वह समय को रोक लेता ताकि वह कार्य को समय पर पूरा कर पाता। एक बटन दबाकर वह समय को पीछे ले जाता ताकि वह अतीत में हो चुकी गलतियों को ठीक कर पाता; और एक बटन दबाकर मुश्किलों तथा दु:खों से भरे समय में से तेज़ी से गुज़र जाता। निश्चय ही ज़िंदगी जीना कितना आसान हो जाता।
मीरदाद कहते हैं कि हमारे लिए समय का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि हम समय के इस भ्रम को इंद्रियों द्वारा अनुभव करते हैं। इंद्रियों द्वारा ही हम मौसम में होनेवाले परिवर्तन को महसूस कर पाते हैं; वस्तुओं के विकास के साथ-साथ उन्हें नष्ट होता हुआ भी देखते हैं। हमारी इंद्रियाँ ही इस भ्रम का शिकार हैं।
समय इन्द्रियों के द्वारा रचित एक चक्र है, और इंद्रियों के द्वारा ही उसे स्थान के शून्यों में घुमा दिया जाता है।
किताब-ए-मीरदाद
समय के इस भ्रम से हम तभी बाहर निकल सकते हैं जब हम इंद्रियों के द्वारों को बंद कर लें, मन को स्थिर कर लें, अपने शरीर को ख़ाली कर दें और समय व स्थान के दायरे से पार चले जाएँ।
जब तक हम अपनी सुरत को नाम से नहीं जोड़ते, हम परिवर्तन व सुख-दु:ख के अधीन रहेंगे। इसीलिये सन्त हमें बार-बार शरीर के नौ द्वारों को ख़ाली करके सुरत को शब्द से जोड़ने का उपदेश देते हैं। जब हम उनके उपदेशानुसार चलते हैं और सुरत शरीर से सिमटकर नाम का आनन्द लेती है, तब हमारी सहन-शक्ति तथा आध्यात्मिक उन्नति में वृद्धि होती है। जब हम माया के नाशवान चक्र को पार कर नाम की स्थायी अवस्था में पहुँचते हैं तो हम आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाते हैं, और सदैव रहनेवाले परम आनन्द को पाने के अधिकारी बन जाते हैं।
महाराज जगत सिंह जी, आत्म-ज्ञान
संत-महात्मा समझाते हैं कि अपने मन को धीरे-धीरे शब्द की सान पर रगड़ने से आख़िरकार मन निर्मल और दीन हो जाता है और आत्मा पर इसकी मज़बूत पकड़ ढीली हो जाती है। आत्मा की इस क़ैद को उस बूँद के उदाहरण द्वारा समझते हैं जो काँच की बोतल में बंद है और महासागर में तैर रही है। हमारी आत्मा बूँद है। यह परमात्मा-रूपी महासागर का हिस्सा है, मगर शरीर-रूपी बोतल में बंद होने के कारण महासागर से जुदा है। केवल हमारा शरीर ही बोतल नहीं है, बल्कि मन, इंद्रियाँ, इच्छाएँ और हर वह चीज़ जो इस मायामय संसार का हिस्सा है, जो हमें समय के इस दायरे से बाँधकर रखती है–बोतल है। यदि आत्मारूपी बूँद इस बोतल से बाहर आ जाए, तो यह सर्वव्यापक चेतना में समाकर परमात्मा का रूप बन जाएगी।
रोमांचित और आनंदित आत्मा जो शुरू से ही शरीर रूपी पिंजरे में क़ैद थी, इस पिंजरे से मुक्त होकर जब चाहे उस अमृत से भरपूर दिव्य चेतना के महासागर में डुबकी लगा सकती है। संत-महात्मा इसे जीते-जी मरना कहते हैं। यह मुक्ति के लिए असली तैयारी है। जब बोतल टूट जाती है तब आत्मा रूपी बूँद जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर आख़िरकार प्रकाश और प्रेम के सागर में समा जाती है।